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व्याख्यान

राजयोग पर छ: पाठ

स्वामी विवेकानंद


संसार के अन्य विज्ञानों की भांति राजयोग भी एक विज्ञान है। यह विज्ञान मन का विश्लेषण तथा अतींद्रिय जगत् के तथ्यों का संकलन करता है और इस प्रकार आध्यात्मिक जगत् का निर्माता है। संसार के सभी महान उपदेष्टाओं ने कहा है, "हमने देखा और जाना है।" ईसा, पॉल और पीटर सभी ने सत्यों की शिक्षा दी, उनका प्रत्यक्ष साक्षात्कार करने का दावा किया है। यह प्रत्यक्ष अनुभव योग द्वारा प्राप्त होता है।

हमारे अस्तित्व की सीमा चेतना अथवा स्मृति नहीं हो सकती। एक अतिचेतना भूमिका भी है इसमें और सुषुप्ति में संवेदनाएँ नहीं प्राप्त होती। किंतु इन दोनों के बीच ज्ञान और अज्ञान जैसा आकाश-पाताल का भेद है। यह आलोच्य योगशास्त्र ठीक विज्ञान के ही समान तर्कसंगत है। मन की एकाग्रता ही समस्त ज्ञान का उत्स है।

योग हमें जड़-तत्व को अपना दास बनाने की शिक्षा देता है, और उसको हमारा दास होना ही चाहिए योग का अर्थ जोड़ना है अर्थात् जीवात्मा को परमात्मा के साथ जोड़ना, मिलना। मन चेतना में और उसके अधीन कार्य करता है। हम लोग जिसे चेतना कहते हैं, वह हमारे स्वरूप की अनंत श्रृंखला की एक कड़ी मात्र है। हमारा यह 'अहम्' किंचित् मात्र चेतना और अचेतना के विपुल परिणाम को आच्छादित करता है, जब उसके परे, और उसकी प्राय: अज्ञात, अतिचेतन की भूमिका है।

श्रद्धाभाव से योगाभ्यास करने पर मन का एक के बाद एक स्तर खुलता जाता है और प्रत्येक, नये तथ्यों को प्रकाशित करता है। हम अपने सम्मुख नये जगतों की सृष्टि होती सी देखते हैं, नयी शक्तियाँ हमारे हाथों में आ जाती हैं, किंतु हमें मार्ग में ही नहीं रुक जाना चाहिए,और जब हमारे सामने हीरों की खान पड़ी हो, तो काँच के दानों से हमें चौंधिया नहीं जाना चाहिए। केवल ईश्वर ही हमारा लक्ष्य है। उसकी प्राप्ति न हो पाना ही हमारी मृत्यु है।

सफलताकांक्षी साधक के लिए तीन बातों की आवश्यकता है। पहली है ऐहिक और पारलौकिक इंद्रिय भोग-वासना का त्याग और केवल भगवान और सत्य को लक्ष्य बनाना। हम यहाँ सत्य की उपलब्धि के लिए हैं, भोग के लिए नहीं। भोग पशुओं के लिए छोड़ दो, जिनको हमारी अपेक्षा उसमें खिन्नता अधिक आनंद मिलता है। मनुष्य एक विचारशील प्राणी है, और मृत्यु पर विजय तथा प्रकाश को प्राप्त कर लेने तक उसे संघर्ष करते ही रहना चाहिए। उसे फिज़ूल की बातचीत में अपनी शक्ति नष्ट नहीं करनी चाहिए। समाज की पूजा एवं लोकप्रिय जनमत मूर्ति-पूजा ही है। आत्मा का लिंग, देश, स्थान या काल नहीं होता।

दूसरी है सत्य और भगवत्प्राप्ति की तीव्र आकांक्षा। जल में डूबता मनुष्य जैसे वायु के लिए व्याकुल होता है, वैसे ही व्याकुल हो जाओ। केवल ईश्वर को ही चाहो, और कुछ भी स्वीकार न करो, जो आभासी मात्र है, उससे धोखा न खाओ। सबसे विमुख होकर केवल ईश्वर की खोज करो।

तीसरी बात में छ: अभ्यास है:

(१) मन को बहिर्मुख न होने देना।

(२) इंद्रिय-निग्रह।

(३) मन को अंतर्मुख बनाना।

(४) निर्विरोध सहिष्णुता या पूर्ण तितिक्षा।

(५) मन को एक भाव में स्थिर रखना। ध्येय को सम्मुख रखो, और उसका चिंतन करो। कभी अलग न करो। समय की गणना न करो।

(६) अपने स्वरूप का सतत चिंतन करो।

अंधविश्वास का परित्याग कर दो। अपनी तुच्छता के विश्वास में अपने को सम्मोहित न करो। जब तक तुम ईश्वर के साथ एकात्मकता की अनुभूति (वास्तविक अनुभूति) न कर लो, तब तक रात-दिन अपने आपको बताते रहो कि तुम यथार्थत: क्या हो।

इन साधनाओं के बिना कोई भी फल प्राप्त नहीं हो सकता। हम ब्रह्मा की धारणा कर सकते हैं, पर उसे भाषा के द्वारा व्यक्त करना असंभव है। जैसे ही हम उसे अभिव्यक्त करने की चेष्टा करते हैं, वैसे ही हम उसे सीमित बना डालते हैं और वह ब्रह्म नहीं रह जाता। हमें इंद्रिय-जगत् की सीमाओं के परे जाना है और बुद्धि से भी अतीत होना है। ऐसा करने की हममें शक्ति है।

[एक सप्ताह तक प्राणायाम के प्रथम पाठ का अभ्यास करने के पश्चात् शिष्य को चाहिए कि वह गुरु को अपना अनुभव बताये ]

प्रथम पाठ

इस पाठ का उद्देश्य व्यक्तित्व का विकास है। प्रत्येक व्यक्तित्व का विकास आवश्यक है। सभी केंद्र में मिल जाएँगे। 'कल्पना प्रेरणा का द्वार और समस्त विचार का आधार है'। सभी पैगंबर, कवि और अन्वेषक महती कल्पनाशक्ति से संपन्न थे। प्रकृति की व्याख्या हमारे भीतर है; पत्थर बाहर गिरता है, लेकिन गुरुत्वाकर्षण हमारे भीतर है, बाहर नहीं। जो अति आहार करते हैं, जो उपवास करते हैं, जो अत्यधिक सोते है, जो अत्यल्प सोते हैं, वे योगी नहीं हो सकते। अज्ञान, चंचलता, ईर्ष्या, आलस्य और अतिशय आसक्ति योगसिद्धि के महान शत्रु हैं। योगी के लिए तीन बड़ी आवश्यकताएँ हैं:

प्रथम-शारीरिक और मानसिक पवित्रता, प्रत्येक प्रकार की मलिनता तथा मन को पतन की ओर धकेलनेवाली सभी बातों का परित्याग आवश्यक है।

द्वितीय- धैर्य: प्रारंभ में आश्चर्यजनक दृश्य प्रकट होंगे, पर बाद में वे सब अंतर्हित हो जाएंगे। यह सबसे कठिन समय है। पर दृढ़ रहो, यदि धैर्य रखोगे, तो अंत में सिद्धि सुनिश्चित है।

तृतीय - लगन: सुख- दु:ख, स्वास्थ्य स्वास्थ्य सभी दिशाओं में साधना में एक दिन का भी नागा न करो।

साधना का सर्वोच्च समय दिन और रात की संधि का समय है। यह हमारे शरीर की हलचल के शांत रहने का समय है-दो शाखाओं के मध्य का शून्यस्थल है। यदि इस समय ना हो सके तो उठने के ही बाद और सोने के पूर्व अभ्यास करो। नित्य स्नान-शरीर को अधिक से अधिक स्वच्छ रखना-आवश्यक है।

स्नान के पश्चात बैठ जाओ। आसन दृढ़ रखो अर्थात ऐसी भावना करो कि तुम चट्टान की भांति दृढ़ हो, कि तुम्हें कुछ भी विचलित करने में समर्थ नहीं है। कंधे सिर और कमल एक सीधी रेखा में रखो, पर मेरुदंड के ऊपर ज़ोर ना डालो, सारी क्रिया इसी के सहारे होती है, अत: इसको क्षति पहुंचाने वाला कोई कार्य न होना चाहिए।

अपने पैर की उंगलियों से आरंभ करके अपने शरीर के प्रत्येक अंग की स्थिरता की भावना करो। इस भाव का अपने में चिंतन करो और यदि चाहो, तो प्रत्येक का स्पर्श करो। प्रत्येक को पूर्ण अर्थात उसमें कोई विकार नहीं है, सोचते हुए धीरे-धीरे ऊपर चलकर सिर तक जाओ। तब समस्त शरीर के पूर्ण होने की भाव का चिंतन करो, यह सोचते हुए कि मुझे सत्य का साक्षात्कार करने के हेतु यह ईश्वर द्वारा प्रदत्त साधन है। यह वह नौका है, जिस पर बैठकर तुम्हें संसार-समुद्र पार करके अनंत सत्य के तट पर पहुँचाता है। इस क्रिया के पश्चात् अपनी नासिका के दोनों छिद्रों से एक दीर्घ श्वास लो और फिर उसे बाहर निकालो। इसके पश्चात् जितनी देर तक सरलतापूर्वक बिना श्वास लिये रह सको, रहो। इस प्रकार के चार प्राणायाम करो और फिर स्वाभाविक रूप से श्वास लो और भगवान से ज्ञान के प्रकाश के लिए प्रार्थना करो।

"मैं उस सत्ता कि महिमा का चिंतन करता हूँ, जिसने विश्व की रचना की है, वह मेरे मन को प्रबुद्ध करे।" बैठो और दस-पंद्रह मिनट इस भाव का ध्यान करो।

अपनी अनुभूतियों को अपने गुरु के अतिरिक्त और किसी को न बताओ। यथासंभव कम से कम बात करो।

अपना चिंतन सद्गुणों पर लगाओ; हम जैसा सोचते हैं, वैसे ही बन जाते हैं। पवित्र चिंतन हमें अपनी समस्त मानसिक मलिनताओं को भस्म करने में सहायता देता है। जो योगी नहीं है, वह दास है। मुक्ति-लाभ के हेतु एक एक करके सभी बंधन काटने होंगे।

इस जगत् के परे जो सत्य है, उसको सभी लोग जान सकते हैं। यदि ईश्वर की सत्ता सत्य है, तो अवश्य ही हमें उसको एक तथ्य के रूप में अनुभव करना चाहिए और यदि आत्मा जैसी कोई सत्ता है, तो हमें उसे देखने और अनुभव करने में समर्थ होना चाहिए। यदि आत्मा है, तो उसका साक्षात्कार करने के लिए हमें कुछ ऐसा बनना पड़ेगा, जो शरीर नहीं है।

योगी इंद्रियों को दो मुख्य वर्गों में विभाजित करते हैं: ज्ञानेंद्रियाँ और कर्मेंद्रियाँ अथवा ज्ञान और कर्म।

अंतरिंद्रिय या मन के चार स्तर हैं: प्रथम-मनस् अर्थात मनन अथवा चिंतन-शक्ति। इसको सयंत न करने पर प्राय: इसकी समस्त शक्ति नष्ट हो जाती है। उचित्त संयम किए जाने पर यह अद्भुत शक्ति बन जाती है। द्वितीय-बुद्धि अर्थात इच्छा-शक्ति (इसको बोध-शक्ति भी कहा जाता है)। तृतीय-अंहकार अर्थात आत्मचेतन अहंबुद्धि। चर्थुत-चित्त अर्थात वह तत्व, जिसके आधार और माध्यम से समस्त शक्तियाँ क्रियाशील होती हैं, मानो यह मन का धरातल है अथवा वह समुद्र है, जिसमें समस्त क्रिया-शक्तियाँ तरंगों का रूप धारण किए हुए है।

योग वह विज्ञान है, जिसके द्वारा हम चित्त को अनेक क्रिया-शक्तियों का रूप धारण करने अथवा उनमें रूपांतरित होने से रोकते हैं। समुद्र में चंद्रमा का प्रतिबिंब जिस प्रकार तरंगों के कारण अस्पष्ट अथवा विच्छिन्न हो जाता है, उसी प्रकार आत्मा अर्थात सत्स्वरूप का प्रतिबिंब भी मन की तरंगों से विच्छिन्न हो जाता है। केवल जब समुद्र दर्पण की भाँति तरंगशून्य होकर शांत हो जाता है, तभी चंद्रमा का प्रतिबिंब दिखायी पड़ता है। उसी प्रकार जब चित्त अर्थात् मनस् संयम के द्वारा संपूर्ण रूप से शांत हो जाता है, तभी स्वरूप का साक्षात्कार होता है।

यद्यपि चित्त सूक्ष्मतर रूप में जड़ है, तथापि वह देह नहीं है। वह देह द्वारा चिरकाल तक आबद्ध नहीं रहता। पर इस बात से सिद्ध होता है कि हम कभी कभी देहभाव से पर हो जाते हैं। अपनी इंद्रियों को वशीभूत करके हम इच्छानुसार इस बात का अभ्यास कर सकते हैं।

यदि हम ऐसा करने में पूर्ण समर्थ हो जाए, तो समस्त विश्व हमारे वश में हो जाए, क्योंकि हमारी इंद्रियों को लेकर ही जगत् है। स्वाधीनता ही उच्च जीवन की कसौटी है। आध्यात्मिक जीवन उस समय प्रारंभ होता है, जिस समय तुम अपने इंद्रियों के बंधन से मुक्त कर लेते हो। जो इंद्रियों के अधीन हैं, वही संसारी हैं, वही दास हैं।

चित्त के तरंगों का रूप धारण करने से रोकने में पूर्ण समर्थ होने पर हमारी देह का नाश हो जाता है। इस देह को तैयार करने में करोड़ों वर्षों से हमें इतना कडा परिश्रम करना पड़ा है कि प्राप्ति का वास्तविक उद्देश्य पूर्णता-प्राप्ति है। हम सोचने लगे हैं कि हमारी समस्त चेष्टाओं का लक्ष्य इस देह की तैयारी है। यही माया है। हमें इस भ्रम को मिटाना होगा और अपने मूल उद्देश्य की ओर जाकर इस बात का अनुभव करना होगा कि हम देह नहीं हैं, यह तो हमारी दास है।

मन को अलग करके उसे देह से पृथक् देखना सीखो। हम देह के ऊपर संवेदना और प्राण को आरोपित करते हैं और फिर सोचते हैं कि वह चेतन और सत्य है। हम इतने दीर्घकाल से यह खोल पहने हुए हैं कि भूल जाते हैं कि हम और देह एक नहीं हैं। योग हमें देह को इच्छानुसार अलग करने तथा उसे अपने दास, अपने साधन, न कि स्वामी, के रूप में देखने में सहायता करता है। योगाभ्यास का प्रथम प्रमुख लक्ष्य मानसिक शक्तियों का नियंत्रण करना है। दूसरा, उन्हें पूर्ण शक्ति लगाकर किसी एक विषय पर केंद्रित करना है।

यदि तुम बहुत बात करते हो, तो तुम योगी नहीं हो सकते।

द्वितीय पाठ

इस योग का नाम अष्टांग योग है, क्योंकि इसको प्रधानत: आठ भागों में विभक्त किया गया है। वे है:

प्रथम-यम। यह सर्वाधिक महत्वपूर्ण है और सारा जीवन इसके द्वारा शासित होना चाहिए। इसके पाँच विभाग हैं:

(१) मन, कर्म, वचन से हिंसा न करना।

(२) मन, कर्म, वचन से लोभ न करना।

(३) मन, कर्म और वचन की पवित्रता।

(४) मन, कर्म और वचन की पूर्ण सत्यता।

(५) अपरिग्रह (किसी से कोई दान न लेना )

द्वितीय-नियम। शरीर की देखभाल, नित्य स्नान, परिमित आहार इत्यादि।

तृतीय-आसन। मेरुदंड के ऊपर ज़ोर न देकर कमर, गर्दन और सिर सीधा रखना।

चर्थुत--प्राणायाम। प्राणवायु अथवा जीवन-शक्ति को वशीभूत करने के लिए श्वास-प्रश्वास का संयम।

पंचम-प्रत्याहार। मन को अंतर्मुख करना तथा उसे बहिर्मुखी होने से रोकना, जड़-तत्व को समझने के लिए उसे मन में घूमना, अर्थात् उस पर बार बार विचार करना।

षष्ठ-धारणा। एक विषय पर ध्यान केंद्रित करना,

सप्तम-ध्यान।

अष्टम-समाधि: ज्ञानालोक, हमारी समस्त साधना का लक्ष्य।

हमें यम-नियम का अभ्यास जीवनपर्यंत करना चाहिए। जहाँ तक दूसरे अभ्यासों का संबंध है, हम ठीक वैसा ही करते हैं, जैसा कि जोंक बिना दूसरे तिनके को दृढ़तापूर्वक पकड़े पहलेवाले को नहीं छोड़ती है। दूसरे शब्दों में हमें अपने पहले कदम को भलीभाँति समझकर अभ्यास कर लेना है और तब दूसरा उठाना है।

इस पाठ का विषयप्राणायाम अर्थात् प्राण का नियमन है। राजयोग में प्राणवायु चित्तभूमि में प्रविष्ट होकर हमें आध्यात्मिक राज्य में ले जाती है। यह समस्त देहयंत्र का मूल चक्र है। प्राण प्रथम फुफ्फुस पर क्रिया करता है, फुफ्फस हृदय को प्रभावित करते हैं, हृदय रक्त-प्रवाह को और वह क्रमानुसार मस्तिष्क मन पर क्रिया करता है। जिस प्रकार इच्छा-शक्ति बाह्य संवेदना उत्पन्न करती है, उसी प्रकार बाह्य संवेदन इच्छा-शक्ति जागृत कर देता है। हमारी इच्छा-शक्ति दुर्बल है, हम जड़-तत्व के इतने बंधन में हैं कि हम उसकी शक्ति को नहीं जान पाते। हमारी अधिकांश क्रियाएँ बाहर से भीतर की ओर होती हैं। बाह्य प्रकृति हमारे आंतरिक साम्य को नष्ट कर देती है, किंतु जैसा कि हमें चाहिए, हम उसके साम्य को नष्ट नहीं कर पाते। किंतु यह सब भूल है। वास्तव में प्रबलतर शक्ति तो भीतर की शक्ति है।

वे ही महान संत और आचार्य हैं, जिन्होंने अपने भीतर के मनोराज्य को जीता है और इसी कारण उनकी वाणी में शक्ति थी। एक ऊँची मीनार पर बंदी किए गए एक मंत्री की कहानी १ है। वह अपनी पत्नी के प्रयत्न से मुक्त हुआ। पत्नी भृंगु, मधु, रेशमी सूत, सुतली और रस्सी लायी थी। यह रूपक इस बात को स्पष्ट करता है कि किस प्रकार हम रेशमी धागे की भाँति प्रथम प्राणवायु का नियमन करके अंत में एकाग्रतारूपी रस्सी पकड़ सकेंगे, जो हमें देहरूपी कारागार से निकाल देगी और हम मुक्ति प्राप्त करेंगे। मुक्ति प्राप्त कर लेने पर उसके हेतु प्रयुक्त साधनो का हम परित्याग कर सकते हैं।

प्राणायाम के तीन अंग है:

(१) पूरक-श्वास लेना।

(२) कुंभक-श्वास रोकना।

(३) रेचक-श्वास छोड़ना।

मस्तिष्क में से होकर मेरुदंड के दोनों ओर बहनेवाले दो शक्ति-प्रवाह हैं, जो मूलाधार में एक दूसरे का अतिक्रमण करके मस्तिष्क में लौट आते हैं। इन दोनों में एक का नाम 'सूर्य' (पिंगला) है, जो मस्तिष्क के वाम गोलार्ध से प्रारंभ होकर मेरुदंड के दक्षिण पार्श्व में मस्तिष्क के आधार (सहस्रार) पर एक दूसरे को लाँघकर पुन: मूलाधार पर अँग्रेजी के आठ (8) अंक के अर्ध भाग के आकार के समान एक दूसरे का फिर अतिक्रमण करती हैं।

दूसरे शक्ति-प्रवाह का नाम 'चंद्र' (इडा) है, जिसकी क्रिया उपयुक्त क्रम के ठीक विपरीत है और जो इस आठ (8) अंक को पूर्ण बनाती है। हाँ, इसका निम्न भाग ऊपरी भाग से कहीं अधिक लंबा है। ये शक्ति-प्रवाह दिन-रात गतिशील रहते हैं और विभिन्न केंद्रों में, जिन्हें हम 'चक्र' कहते हैं, बड़ी बड़ी जीवनी-शक्तियों का संचय किया करते हैं। पर शायद ही हमें उनका ज्ञान हो। एकाग्रता द्वारा हम उनका अनुभव कर सकते हैं और शरीर विभिन्न अंगों में उनका पता लगा सकते हैं। इस 'सूर्य' और चंद्र' के शक्ति-प्रवाह श्वास-क्रिया के साथ घनिष्ठ रूप से संबद्ध हैं और इसी के नियमन द्वारा हम शरीर को नियमित करते हैं।

कठोपनिषद् में देह को रथ, मन को लगाम, इंद्रियों को घोड़े, विषय को पथ और बुद्धि को सारथी कहा गया है। इस रथ में बैठी हुई आत्मा रथी है। यदि रथी समझदार नहीं है और सारथी से घोड़ों को नियंत्रित नहीं करा सकता तो, वह कभी भी अपने ध्येय तक नहीं पहुँच सकता। अपितु, दुष्ट अश्वों के समान इंद्रियाँ उसे जहाँ चाहेंगी, खींच ले जायेगी। यहाँ तक कि उसकी जान भी ले सकती हैं। ये दो शक्ति-प्रवाह सारथी के हाथों में रोकथाम के हेतु लगाम हैं और अश्वों को अपने वश में करने के लिए ऊपर नियंत्रित नहीं कर सकते। नीतिशिक्षाओं को कार्यरूप में परिणत करने कि शक्ति हमें केवल योग से ही प्राप्त हो सकती है। नीतिपरायण होना योग का उद्देश्य है। जगत् के सभी बड़े बड़े आचार्य योगी थे और उन्होंने प्रत्येक शक्ति-प्रवाह को वश में कर रखा था। योगी इन दोनों प्रवाहों को मेरुदंड के तले में संयत करके उनको मेरुदंड के भीतर के केंद्र से होकर परिचालित करते हैं। तब ये प्रवाह ज्ञान के प्रवाह बन जाते हैं यह स्थिति केवल, योगी की ही होती है।

प्राणायम की क्रिया इस प्रकार है: दायें नथुने को अंगूठे से दबाकर चार बार ' ॐ ' का मन ही मन आठ बार जप करते हुए श्वास को भीतर रोके रहो।

पश्चात्, अंगूठे को दाहिने नथुने से हटाकर चार बार ' ॐ ' का जप करते हुए उसके द्वारा धीरे-धीरे श्वास को बाहर निकालो।

जब श्वास बाहर हो जाए, तब फुफ्फुस समस्त वायु निकालने के लिए पेट को दृढ़तापूर्वक संकुचित्त करो। फिर बाएं नथुने को बंद करके चार बाहर ' ॐ ' का जप करते हुए दाहिने नथुने से श्वास भीतर ले जाओ। इसके बाद दाहिने नथुने को अंगूठे से बंद करो और आठ बार ॐ का जप करते हुए श्वास को भीतर रोको। फिर बाएं नथुने को खोलकर चार बार 'ॐ' का जप करते हुए पहले की भांति पेट को संकुचित्त करके धीरे-धीरे श्वास को बाहर निकालो। इस सारी क्रिया को प्रत्येक बैठक में दो बार दुहराओ अर्थात् प्रत्येक नथुने के लिए दो के हिसाब से चार प्राणायाम करो। प्राणायाम के लिए बैठने के पूर्व सारी क्रिया प्रार्थना से प्रारंभ करना अच्छा होगा।

एक सप्ताह तक इस अभ्यास को करने की आवश्यकता है। फिर धीरे-धीरे श्वास-प्रश्वास की अवधि को बढ़ाओ, किंतु अनुपात वही रहे। अर्थात यदि तुम श्वास भीतर ले जाते समय छ: बार 'ॐ ' का जप करते हो, तो उतना ही स्वास्थ बाहर निकालते समय भी करो और कुंभक के समय बारह बार करो। इन अभियानों के द्वारा हम और अधिक पवित्र, निर्मल और आध्यात्मिक होते जाएंगे। किसी विषय में पढ़ने से अथवा कोई शक्ति (सिद्धि) की चाह से बचे रहो।

प्रेम ही एक ऐसी शक्ति है, जो चिरकाल तक हमारे साथ रहती है और बढ़ती जाती है। राजयोग के द्वारा ईश्वर को प्राप्त करने की इच्छा रखने वाले व्यक्ति को मानसिक, शारीरिक, नैतिक और आध्यात्मिक दृष्टि से सबल होना आवश्यक है। अपना प्रत्येक कदम इन बातों को ध्यान में रखकर ही बढ़ाओ।

लाखों में कोई बिरला ही कह सकता है, "मैं इस संसार के परे जाकर ईश्वर का साक्षात्कार करूंगा।" शायद ही कोई सत्य के सामने खड़ा हो सके। किंतु अपने उद्देश्य की सिद्धि के लिए हमें मरने के लिए भी तैयार रहना पड़ेगा।

तृतीय पाठ

कुंडलिनी :आत्मा का अनुभव जड़ के रूप में न करो, बल्कि उसके यथार्थ स्वरूप को जानो। हम लोग आत्मा को देह समझते हैं, किंतु हमारे लिए इसको इंद्रिय और बुद्धि से अलग करके सोचना आवश्यक है। तभी हमें इस बात का ज्ञान होगा कि हम अमृतस्वरूप है। परिवर्तन से आशय है कार्य और कारण का द्वैत ; और जो कुछ भी परिवर्तन होता है, उसका नश्वर होना अवश्यंभावी है। इससे यह सिद्ध होता है कि न तो शरीर और न मन अविनाशी हो सकते हैं, क्योंकि दोनों में निरंतर परिवर्तन हो रहा है। केवल जो अपरिवर्तनशील है, वही अविनाशी हो सकता है; क्योंकि उसे कुछ भी प्रभावित नहीं कर सकता।

हम सत्यस्वरूप हो नहीं जाते, बल्कि हम सत्यस्वरूप है; किंतु हमें सत्य को आवृत करने वाले अज्ञान के पर्दों को हटाना होगा। देह विचार का ही रूप है। 'सूर्य' और 'चंद्र ' शक्ति-प्रवाह शरीर के सभी अंगों में शक्ति-संचार करते है। अवशिष्ट अतिरिक्त शक्ति सुषुम्णा के अंतर्गत विभिन्न चक्रों अथवा सामान्यतया विदित स्नायु-केंद्र में संचित्त रहती है।

ये शक्ति -प्रवाह मृत देह में दृष्टिगत नहीं होते और केवल स्वस्थ शरीर में ही देखे जा सकते हैं। योगी को एक विशेष सुविधा रहती है, क्योंकि वह केवल इनका अनुभव ही नहीं करता, अपितु इन्हें प्रत्यक्ष देखता भी है। वे उसके जीवन में ज्योतिर्मय हो उठते हैं। ऐसे ही उसके महान स्नायु-केंद्र भी है।

कार्य ज्ञात तथा अज्ञात, दोनों दशाओं में होते हैं। योगियों की एक दूसरी दशा होती है, वह ज्ञानातीत या अतिचेतन अवस्था, जो सभी देशों और सभी को में समस्त धार्मिक ज्ञान का स्रोत रही है। ज्ञान अतीत दशा में कभी भूल नहीं होती, किंतु जब जन्मजात प्रवृत्ति के द्वारा प्रेरित कार्य पूर्ण रूपेण यंत्रवत होता है, तब पूर्ववर्ती ( ज्ञानातीत दशा) ज्ञान की दशा के परे की स्थिति होती है। इसे अंतः प्रेरणा कहते हैं; परंतु योगी कहता है, "यह शक्ति प्रत्येक मनुष्य में अंतर्निहित है और अंततोगत्वा सभी लोग इसका आनंद प्राप्त करेंगे।"

हमें 'सूर्य' और 'चंद्र 'की गतियां को एक नए रास्ते से परिचालित करना होगा और उनके लिए सुषुम्ना का मुख खुलकर एक नया रास्ता देना होगा। जब हम इस 'सुषुम्ना' से होकर शक्ति-प्रवाह को मस्तिष्क तक ले जाने में सफल हो जाते हैं उस समय हम शरीर से बिल्कुल अलग हो जाते हैं। मेरुदंड के तले त्रिकास्थि (sacrum) के निकट स्थित मूलाधार चक्र सबसे अधिक महत्वपूर्ण है।यह स्थल काम शक्ति के प्रजनन तत्वों का निवास है और योगी इसको एक त्रिकोण के भीतर छोटे से कुंडली कृत सर्प के प्रतीक के रूप में मानते हैं। इस प्रसुप्त सर्प को कुंडलिनी कहते हैं। इसी कुंडलिनी को जागृत करना ही राजयोग का प्रमुख उद्देश्य है।

महती काम - शक्ति को पशु सुलभ क्रिया से उन्न्त करके मनुष्य शरीर के महान डाइनेमो मस्तिष्क में परिचालित करके वहाँ संचित्त करने पर वह ओजस् अर्थात् महन् आध्यात्मिक शक्ति बन जाती है। समस्त सत् चिंतन, समस्त प्रार्थनाएँ उस पशुसुलभ शक्ति के एक अंश को ओजस् ही मनुष्य का सच्चा मनुष्यत्व है, और केवल मनुष्य के शरीर में ही इस शक्ति का संग्रह संभव है। जिसकी समस्त पशुसुलभ काम- शक्ति ओजस् में परिवर्तन हो गयी है, वही देवता है। उसकी वाणी में शक्ति होती है और उसके वचन जगत् को पुनरुज्जीवित करते हैं।

योगी मन ही मन कल्पना करता है की यह कुंडलिनी क्रमश: धीरे-धीरे उठकर सर्वोच्च स्तर अर्थात् सहस्रार में पहुँच रही है। जब तक मनुष्य अपनी सर्वोच्च शक्ति, काम-शक्ति को ओज में परिणत नहीं क़र लेता, कोई भी स्त्री या पुरुष, वास्तविक रूप में आध्यात्मिक नहीं हो सकता।

कोई शक्ति उत्पन्न नहीं की जा सकती, उसे केवल एक दिशा में परिचालित किया जा सकता है। अत: हमें चाहिए की हम अपनी महती शक्तियों को अपने वश में करना सीखें और अपनी इच्छा-शक्ति से उन्हें पशुवत् रखने के बजाए आध्यात्मिक बना दें। अत: यह स्पष्ट है की पवित्रता ही समस्त धर्म और नीति की आधारशिला है। विशेषत: राजयोग में मन, वचन की पूर्ण पवित्रता परमावश्यक है। विवाहित और अविवाहित, सभी लोगों के लिए एक ही नियम लागू होता है। देह के इस सार अंश को वृथा नष्ट कर देने पर आध्यात्मिकता की प्राप्ति संभव नहीं है।

इतिहास बताता है कि सभी युगों में बड़े बड़े द्रष्टा महापुरुष या तो संन्यासी और तपस्वी थे अथवा विवाहित जीवन का परित्याग कर देने वाले थे। केवल पवित्रात्मा ही भगवत्साक्षात्कार कर सकते हैं।

प्राणायाम से पूर्व इस त्रिकोणमंडल को ध्यान में देखने की चेष्टा करो। आंखे बंद करके चित्र की मन ही मन स्पष्ट कल्पना करो। सोचो कि इसके चारों और अग्निशिखा है और उसके बीच में कुंडलिनी सोयी पड़ी है। जब तुम्हें कुंडलिनी स्पष्ट रूप से दिखने लगे, अपनी कल्पना में इसे मूलाधार चक्र में स्थित करो और कुंभक में श्वास को अवरुद्ध करके कुंडलिनी को जगाने के हेतु श्वास के द्वारा उसके मस्तक पर आघात करो। जितनी ही शक्तिशाली कल्पना होंगी, उतनी शीघ्रता से वास्तविक फल की प्राप्ति होगी और कुंडलिनी जागृत हो जाएगी। जब तक वह जागृत नहीं हुई तब तक यही सोचो कि वह जागृत हो गयी है, तथा शक्ति-प्रवाहों को अनुभव करने कि चेष्टा करो और उन्हें सुषुम्णा पथ में परिचालित करने का प्रयास करो। इससे उनकी क्रिया में शीघ्रता होती है।

चतुर्थ पाठ

मन को वश में करने की शक्ति प्राप्त करने के पूर्व हमें उसका भली प्रकार से अध्ययन करना चाहिए। चंचल मन को संयत करके हमें उसे विषयों से खींचना होगा और उसे एक विचार में केंद्रित करना होगा। बार-बार इस क्रिया को करना आवश्यक है। इच्छा-शक्ति द्वारा मन को वश में करके उसकी क्रिया रोककर ईश्वर की महिमा का चिंतन करना चाहिए।

मन को स्थिर करने का सबसे सरल उपाय है ,चुपचाप बैठ जाना उसे कुछ क्षण के लिए वह वहाँ जाए, जाने देना। दृढ़तापूर्वक इस भाव का चिंतन करो, " मैं मन को भी विचरण करते हुए देखने वाला साक्षी हूँ। मैं मन नहीं हूँ।" पश्चात् मन को ऐसा सोचता हुआ कल्पना करो कि मानो वह तुमसे बिल्कुल भिन्न है अपने को ईश्वर से अभिन्न मानो मन अथवा जड़ पदार्थ के साथ एक करके कदापि न सोचो।

सोचो कि मन तुम्हारे सामने एक विस्तृत तरंगहीन सरोवर है और आने जाने वाले विचार इसके तल पर उठने वाले बुलबुले हैं। विचारों को रोकने का प्रयास ना करो, वरन उनको देखो और जैसे-जैसे वे विचरण करते हैं, वैसे वैसे तुम भी उनके पीछे चलो। यह क्रिया धीरे-धीरे मन के वृत्तों को सीमित कर देंगी। कारण यह है कि मन विचार की विस्तृत परिधि में घूमता है और यह परियां विस्तृत होकर निरंतर बढ़ने वाले वृत्त में फलती रहती हैं, ठीक वैसे ही जैसे किसी सरोवर में ढेला फेंकने पर होता है। हम इस क्रिया को उलट देना चाहते हैं और बड़े दिनों से प्रारंभ करके उन्हें छोटा बनाते चले जाते हैं - यहाँ तक कि अंत में हम मन को एक बिंदु पर स्थिर करके उसे वहीं रोक सके। दृढ़तापूर्वक इस भाव का चिंतन करो, "मैं मन नहीं हूँ, मैं सोच रहा हूँ। मैं अपनी मन तथा अपनी क्रिया का अवलोकन कर रहा हूँ।" प्रतिदिन मन और भावना से अपने को अभी समझने का भाव कम होता जाएगा, यहाँ तक कि अंत में तुम अपने को मन से बिल्कुल अलग कर सकोगे और वास्तव में इसे अपने से भिन्न जान सकोगे। इतनी सफलता प्राप्त करने के बाद मन तुम्हारा दास हो जाएगा और उसके ऊपर इच्छानुसार शासन कर सकोगे।

इंद्रियों से परे हो जाना योगी की प्रथम स्थिति है। जब वह मन पर विजय प्राप्त कर लेता है तब सर्वोच्च स्थिति प्राप्त कर लेता है।

जितना संभव हो सके, एकांत सेवन करो। तुम्हारा आसान सामान्य ऊंचाई का होना चाहिए। प्रथम कुशासन बिछाओ, फिर मृग चर्म उसके ऊपर रेशमी कपड़ा। अच्छा होगा कि आसन के साथ पीठ टेकने का साधन न हो और वह दृढ़ हो।

चूँकि विचार एक प्रकार के चित्र हैं, अत: हमें उनकी रचना न करनी चाहिए। हमें अपने मन से सारे विचार दूर हटाकर रिक्त कर देना चाहिये। जितनी ही शीघ्रता से विचार आयें, उतनी ही तेज़ी से उन्हें दूर भगाना चाहिए। इस कार्यरूप में परिणत करने के लिए हमें जड़-तत्व और देह के परे जाना परमावश्यक है। वस्तुत: मनुष्य का समस्त जीवन ही इसको सिद्ध करने का प्रयास है। प्रत्येक ध्वनि का अपना अर्थ होता है। हमारी प्रकृति में इन दोनों का परस्पर संबंध है। हमारा उच्चतम आदर्श ईश्वर है। उसका चिंतन करो। यही नहीं कि हम ज्ञाता को जान सकते हैं, अपितु हम तो वहीं हैं।

अशुभ को देखना तो उसकी सृष्टि ही करना है। जो कुछ हम हैं, वही हम बाहर भी देखते हैं, क्योंकि यह जगत् हमारा दर्पण है। यह छोटा सा शरीर हमारे द्वारा रचा हुआ एक छोटा सा दर्पण है, बल्कि समस्त विश्व हमारा शरीर है। इस बात का हमें सतत चिंतन करना चाहिए, तब हमें ज्ञान होगा कि न तो हम मर सकते हैं और न दूसरों को मार सकते हैं, क्योंकि वह तो हमारा ही स्वरूप है। हम अजन्मा और अमर हैं और प्रेम ही हमारा कर्तव्य है।

'यह समस्त विश्व हमारा शरीर है। समस्त स्वास्थ्य, समस्त सुख हमारा सुख है, क्योंकि यह सब कुछ विश्व के अंतर्गत है।' कहो, "मैं विश्व हूँ।" अंत में हमें ज्ञात हो जाता है कि सारी क्रिया हमारे भीतर से इस दर्पण में प्रकट हो रही है।

यद्यपि हम छोटी-छोटी लहरों के समान प्रतीत हो रहे हैं, तथापि समस्त समुद्र हमारा आधार है और हम उसके साथ एक हैं। लहर का अपने आप में कोई अस्तित्व नहीं है।- यदि कल्पना का सदुपयोग करें, तो वह हमारी परम हितैषिणी है। वह युक्ति के परे जा सकती है और वही एक ऐसी ज्योति है, जो हमें सर्वत्र ले जा सकती है।

अंतःस्फुरण प्रदान करनेवाली शक्ति हमारे भीतर है। हमें स्वयं अपनी-उच्च मनःशक्तियों से प्रेरित होना होगा।

पंचम पाठ

प्रत्याहार और धारणा : भगवान कृष्ण ने कहा है, "चाहे जिस रास्ते से आओ, मेरे ही समीप पहुँचोगे।" "सभी को मेरे पास पहुँचना है।" मन को समस्त विषयों से हटाकर किसी अभीष्ट विषय में संगृहीत करने की चेष्टा का ही नाम प्रत्याहार है। इसका प्रथम सोपान है मन की गति को स्वछंद कर देना : उस पर नज़र रखो, देखो कि वह क्या चिंतन करता है : स्वयं केवल साक्षी बनो। मन आत्मा नहीं है। वह केवल सूक्ष्मतर रूप लिये हुए जड़ ही है। हम उसके मालिक हैं और स्नायविक शक्तियों के द्वारा इच्छानुसार इसका उपयोग करना सीख सकते हैं।

शरीर मन (आंतरिक) का बाह्य रूप है। आत्मस्वरूप हम शरीर और मन, दोनों से परे हैं। हम आत्मा हैं, नित्य, अनंत, साक्षी। शरीर चिंतन-शक्ति का स्थूल रूप है।

जब वाम रंध्र से श्वास-क्रिया हो, तब विश्राम करो और जब दक्षिण रंध्र से, तब कार्य, और जब दोनों से हो, तब ध्यान। जब हम शांत हों और दोनों नासिकारंधों से समान रूप से श्वास ले रहे हों, तब समझना चाहिए कि हम मौन ध्यान की उपयुक्त स्थिति में हैं। पहले ही एकाग्रता लाने से कोई लाभ नहीं होता। मन का निरोध अपने आप होगा।

अंगूठे और तर्जनी से नासिका-रंध्रों को बंद करने का पर्याप्त अभ्यास कर लेने के पश्चात हम केवल अपनी इच्छा-शक्ति, विचार मात्र से ऐसा करने में समर्थ होंगे।

अब प्राणायाम को कुछ बदलना होगा। यदि साधक के अपने 'इष्ट' (वाँ छित आदर्श) का कोई नाम है, तो रेचक और पूरक के समय उसे 'ॐ' के बदले उस नाम का जप करना चाहिए और कुंभक के समय 'हुम्' मंत्र का जप करना चाहिए।

अवरुद्ध श्वास को तेज़ी के साथ कुंडलिनी के सिर के ऊपर प्रत्येक 'हुम्' जपने के साथ निक्षिप्त करो और कल्पना करो कि ऐसा करने से वह जाग रही है। अपने को ईश्वर से अभिन्न समझो। कुछ समय बाद विचार अपने आगमन की घोषणा करेंगे और वे कैसे प्रारंभ होते हैं, इस बात का हमें ज्ञान होगा और हम जो कुछ भी सोचने जा रहे हैं, उसके प्रति सचेत हो जायँगे, इस स्तर पर ठीक वैसे ही अनुभव होगा, जैसे कि हम प्रत्यक्ष किसी आदमी को देखते हैं। इस सीढ़ी तक हम तभी पहुँच पाते हैं, जब कि हमने अपने को अपने मन से अलग करना सीख लिया है और हम अपने को अलग और मन को एक अलग वस्तु के रूप में देखते हैं। विचार तुम्हें पकड़ने न पाये, हटकर खड़े हो जाओ, वे शांत हो जायेंगे।

इन पवित्र विचारों का अनुसरण करो; उनके साथ चलो और जब वे अंतर्हित हो जायँगे, तब तुम्हें सर्वशक्तिमान भगवान के चरणों के दर्शन होंगे। यह स्थिति ज्ञानातीत (अतिचेतन) अवस्था है। जब विचार विलीन हो जायँ, तब उसी का अनुसरण करो और उसी में तन्मय हो जाओ।

प्रभामंडल (halos) अंतर्योति के प्रतीक हैं और योगी उनका दर्शन कर सकते हैं। कभी कभी हम कोई ऐसा मुख देखते हैं, जो मानो ऐसी ज्योति से मंडित है, जिसमें हम उसके चरित्र की झलक पा सकते हैं और उसके बारे में एक अचूक निष्कर्ष पर पहुँच सकते हैं। हम अपने इष्ट का आगमन एक दिव्य दर्शन के रूप में देख सकते हैं और इस प्रतीक को आलंबन बनाकर सरलतापूर्वक अपने मन को पूर्णरूपेण एकाग्र कर सकते हैं।

यद्यपि हम सभी इंद्रियों की सहायता से कल्पना कर सकते हैं, तथापि अधिकतर हम आँखों की सहायता लेते हैं। यहाँ तक कि कल्पना भी अर्ध-जड़ है। दूसरे शब्दों में यह कहा जा सकता है कि बिना चित्र के हम चिंतन नहीं कर सकते। चूंकि पशु भी चिंतन करते से प्रतीत होते हैं, किंतु उनके पास शब्द नहीं है, अतः यह संभव है कि चिंतन और चित्रों के बीच में कोई अविच्छिन्न संबंध न हो।

योग में कल्पना को बना रहने दो, पर ध्यान रखो कि वह शुद्ध और पवित्र रहे। कल्पना-शक्ति की प्रक्रिया की हमारी सबकी अपनी-अपनी अलग विशिष्टताएँ हैं। जो मार्ग तुम्हारे लिए सबसे अधिक स्वाभाविक हो, उसी का अनुसरण करो, वही सरलतम मार्ग होगा।

हमारा वर्तमान जीवन अनेक जन्मों के कर्मों का फल है। बौद्ध लोग कहते हैं, "एक से दूसरा दीप जलाया गया। दीप भिन्न-भिन्न है, पर प्रकाश एक ही है।"

सदा प्रसन्न रहो, वीर बनो, नित्य स्नान करो और धैर्य, पवित्रता और लगन बनाए रखो। तभी तुम यथार्थतः योगी बनोगे। शीघ्रता कदापि न करो और यदि उच्च शक्तियाँ अवतरित होती हैं, तो याद रखो कि वे तुम्हारे अपने मार्ग से भिन्न पगडंडियाँ हैं। वे तुम्हें अपने मुख्य पथ से भ्रष्ट न कर पायें। उन्हें अलग छोड़ दो और अपने एकमात्र लक्ष्य पर अटल रहो-ईश्वर। केवल अनंत की चाह करो, जिसे पाकर हमें अनंत शांति प्राप्त होगी। पूर्ण को प्राप्त करने पर फिर प्राप्त करने के लिए कुछ भी शेष नहीं रहता। हम सदा के लिए मक्ति और पूर्णता का लाभ कर लेते हैं-पूर्ण सत्, पूर्ण ज्ञान, पूर्ण आनंद।

षष्ठ पाठ

सुषुम्णा: सुषुम्णा का ध्यान करना अत्यंत लाभदायक है। तुम इसका चित्र अपने भाव-चक्षुओं के सामने लाओ, यह सर्वोत्तम विधि है। पश्चात् देर तक उसका ध्यान करो। सुषुम्णा एक सूक्ष्म, समुज्ज्वल सूत्र है। मेरुदंड का यह प्राणवंत मार्ग, जिसके द्वारा हम कुंडलिनी जाग्रत कर सकते हैं, मुक्ति का द्वार है।

योगियों की भाषा में सुषुम्णा के दोनों छोरों पर दो कमल हैं। नीचेवाला कमल कुंडलिनी के त्रिकोण को आच्छादित किए हुए है और ऊपर ब्रह्मारंध्र या सहस्रार को ढके हुए है। इन दोनों के बीच और भी चार कमल हैं, जो इस मार्ग के विभिन्न सोपान हैं :

षष्ठ-सहस्रार ।

पञ्चम-नेत्रों के मध्य आज्ञाचक्र।

चतुर्थ-कण्ठ के नीचे-विशुद्ध।

तृतीय-हृदय के समीप अनाहत।

द्वितीय-नाभिदेश में-मणिपुर।

प्रथम-मेरुदंड के नीचे-मूलाधार।

प्रथम कुंडलिनी को जगाना चाहिए, फिर उसे एक कमल से दूसरे कमल की ओर ऊपर लेते हुए अंत में मस्तिष्क में पहुंचाना चाहिए। प्रत्येक सोपान मन का एक नूतन स्तर है।


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हिंदी समय में स्वामी विवेकानंद की रचनाएँ